बिलासपुर के शिक्षक प्रदीप श्रीवास्तव ने अपनी जिद से विशेष पिछड़ी जनजाति कोरवा की दशा ही बदल दी। जंगल में रहकर कंद-मूल खाकर और शिकार कर जीवन बिताने वाले उनके परिजन और ऐसे दूसरे लोगों को बस्ती में रहना सिखाया। उनके लिए शासन की योजना से आवास की व्यवस्था कराई। राशन कार्ड बनवाया। खेती करना सिखाया।
कोरवा बच्चों का स्कूल में दाखिला कराया। अब हर घर बिजली और पीने के साफ पानी की भी सुविधा है। बदलाव की ये कहानी सरगुजा जिला मुख्यालय से करीब 10 किलोमीटर दूरी पर कोरवा पारा (खाला) गांव की है। श्रीवास्तव की जब कोरवा पारा प्राथमिक शाला में पोस्टिंग हुई, तब 8-10 परिवार ही रहते थे। गांव में न बिजली, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं नहीं थीं।
स्कूल में बच्चों के दाखिले बढ़ाने की कोशिश की तो पता चला कि ज्यादातर कोरवा परिवार जंगल में रहते हैं। कंदमूल खाकर और शिकार कर अपना जीवन-यापन करते थे। उन्हें बस्ती में रहना पसंद नहीं था। इस दौरान स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में मृत्यु भी हो जाती थी। इसे देखते हुए शिक्षक ने पहले उन्हें गांव में बसाने की कोशिश शुरू की।
पहले उनकी बोली सीखी, ताकि उन्हें समझा सकें। ये कोशिश रंग लाई। वे लोगों को गांव में बसाने में सफल रहे। उन्हें आवास, राशन आदि उपलब्ध हो सके, इसके लिए सरकार की योजनाओं से जोड़ा। गांव के पास ही खेती करना भी सिखाया, ताकि अनाज-सब्जी उगा सकें।
इससे पहले, लोगों का काम सुबह जंगल जाकर लकड़ी लाना और उसे शहर ले जाकर बेचना था। इससे ही उनकी आजीविका चलती थी। शिक्षक ने उन्हें पेड़-पौधों का महत्व समझाया। उन्होंने अपनी बाड़ियों में सब्जियां उगाना शुरू किया है।
पानी टंकी से लेकर हर घर में बिजली शिक्षक की देन श्रीवास्तव को कोराव जनजाति के लोगों को मुख्यधारा में लाने में 17 साल लग गए। दरअसल, कोरवा विलुप्त होने वाली जनजाति भी है। श्रीवास्तव के प्रयास से कोरवा बस्ती के लोग अब सरकारी योजनाओं का लाभ ले रहे हैं। गांव में लगभग 25-30 परिवारों के 150 सदस्य रहते हैं। पानी टंकी है। सोलर पैनल से घरों में बिजली पहुंचाई गई है और हर घर में नल से पानी आता है। किसी भी समस्या के समाधान के लिए वे खुद ग्रामीणों को लेकर अधिकारियों के पास जाते हैं।