कैलिफोर्निया । अमेरिका के सबसे बड़े सक्रिय ज्वालामुखी प्रणाली पर मौजूद मैमथ माउंटेन के सूखे जंगलों की स्टडी करने वैज्ञानिक पहुंचने लगे। उन्होंने ज्वालामुखियों से निकलने वाले उत्सर्जन पर ध्यान देना शुरु किया। उनकी रीडिंग शुरु की। तब यह खुलासा हुआ कि भूकंप ने धरती के अंदर से सीओ2 को ऊपर आने का रास्ता दिया। इससे जड़ों का दम घुटा और पेड़ों की सामूहिक मौत हो गई।
इस हैरान करने वाली खोज के बाद अब स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के जियोलॉजिस्ट जॉर्ज हिली और उनकी टीम ने एक नई स्टडी की है, जो और ज्यादा अचंभित करती है। जॉर्ज ने बताया कि मैमथ माउंटेन के अंदर कार्बन डाईऑक्साइड का ज्वार-भाटा उसके ऊपर जमा बर्फ की वजन और सतह से रिसकर जमीन के अंदर बहने वाले पानी से प्रभावित होता है। जॉर्ज कहते हैं कि इस स्टडी से पता चलता है कि कैसे ठोस धरती ने जलवायु और सतह पर मौजूद अन्य चीजों के साथ खुद को जोड़ रखा है। सूखे की वजह से ज्वालामुखी के सांस लेने की प्रक्रिया में बदलाव आ जाता है। यह रिसर्च तब सामने आई जब इस साल कैलिफोर्निया में सूखी सर्दी पड़ी।
जितनी बर्फ गिरनी चाहिए थी, उससे कम बर्फ इस साल गिरी। कोई बर्फीला तूफान भी नहीं आया।कैलिफोर्निया के प्रशासन का अनुमान है कि इस सदी के अंत तक सियेरा नेवादा से बर्फ की मात्रा में 48 से 65 फीसदी की गिरावट आएगी। जलवायु परिवर्तन की वजह से इस इलाके की हाइड्रोलॉजी पूरी तरह से बदल जाएगी। इसकी वजह से ज्वालामुखी से निकलने वाली गैसों का बहाव भी प्रभावित होगा। जॉर्ज और उनकी टीम ने इसकी स्टडी करने के लिए हॉर्सशू लेक को चुना।हॉर्सशू लेक के पास कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन की जांच हर 30 मिनट के अंतराल पर पूरे छह साल तक की गई। यह मैमथ माउंटेन का वह इलाका है, जहां पर पेड़ों की सबसे ज्यादा मौत हुई है। स्टडी में पता चला कि साल 2017 के बाद से धरती के अंदर से बाहर आने वाले CO2 में हर साल 20 फीसदी की कमी आई है। इसके साथ ही सूखा पड़ने से यह इलाका पेड़ों से मुक्त होता चला गया। साथ ही बर्फ की मात्रा घटती रही। मैमथ माउंटेन लॉन्ग वैली काल्डेरा में एक सुपर ज्वालामुखी विस्फोट से बना था।
यह घटना करीब 7.60 लाख साल पुरानी हैयह बात सबको पता है कि पिघलती बर्फ और बारिश कार्बन डाईऑक्साइड को धुल देती है। लेकिन मैमथ माउंटेन पर बहुत कम बारिश होती है। साल 2017 से तो और भी कम हुई है। कुल मिलाकर यह बात सामने आई कि मैमथ माउंटेन से कार्बन डॉईऑक्साइड निकलने की वजह से उसके नीचे मौजूद दरारें हैं। जब ऊपर बर्फ का वजन बढ़ता है तो अंदर से गैसों के निकलने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है, क्योंकि दरारें पतली हो जाती हैं। सिकुड़ जाती हैं। बर्फ पिघलते ही गैसों के निकलने की मात्रा बढ़ जाती है।साल 2017 से 2020 के बीच सर्दियों बर्फ की मात्रा बढ़ने पर सीओ2 उत्सर्जन कम हुआ। गर्मियों में ज्यादा होता था। क्योंकि बर्फ कम हो जाती थी। जॉर्ज ने कहा कि हम सिर्फ यह अध्ययन नहीं कर पाए कि पहाड़ के नीचे फॉल्ट का मूवमेंट कैसे होता है। उसका क्या असर होता है। लेकिन यह बात तो निश्चित है कि फॉल्ट के मूवमेंट की वजह से भी गैसों का निकलना कम और ज्यादा होता रहता है।
जॉर्ज हिली ने बताया कि सीओ2 निकलने की प्रक्रिया पूरी तरह से जलवायु, बर्फ, फॉल्ट मूवमेंट आदि पर निर्भर करती है। लेकिन भूकंप आने की फ्रीक्वेंसी धरती के अंदर ऊपर आते हुए मैग्मा (गर्म लावा) की वजह से घटती-बढ़ती है। ये भूकंप धरती की सतह और उसके निचले हिस्सों को हिला कर रख देते हैं। नीचे से गर्म और हानिकारक गैसें बाहर की तरफ आती हैं। जिससे पेड़ों की जड़ों का दम घुट जाता है, जड़ खत्म तो पेड़ खत्म।जॉर्ज कहते हैं कि अगर बचे हुए पेड़ों की क्रमबद्धता की स्टडी करें तो हमें अगली आपदा का पता चल सकता है। क्योंकि अगर पेड़ों की क्रमबद्धता में गड़बड़ी आती है तो इसका मतलब ये है कि ज्वालामुखी में विस्फोट होने वाला है। क्योंकि ज्वालामुखी फटने से पहले भूकंप की लहरें आती हैं। ये धरती की ऊपरी सतह के हिलाकर कमजोर कर देती हैं। अमेरिका में सभी सक्रिय ज्वालामुखियों और उनके आसपास की जमीन और भूकंपीय गतिविधियों पर वैज्ञानिक पिछले कुछ दशकों से लगातार नजर रख रहे हैं।
वैज्ञानिकों को ज्वालामुखीय गैसों को जमा करने में काफी ज्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। कभी किसी एक गैस को जमा करने से पूरे ज्वालामुखी प्रणाली की स्टडी करना सही नहीं रहता। क्योंकि कई बार ज्वालामुखी से गैस एकदम खत्म हो जाती है। फिर अचानक बढ़ जाती है। ऐसे में सही अनुमान लगाना मुश्किल हो जाता है। इससे ज्वालामुखी विस्फोट और भूकंपों के आने का अंदाजा लगाना कठिन हो जाता है।