बिना बताए कार लेकर घूमने निकल गए थे बेटे सुनील, पता लगते ही लाल बहादुर शास्त्री ने मांग लिया पैसों का हिसाब, पढ़िए यह रोचक प्रसंग

Updated on 29-09-2024 02:59 PM
नई दिल्ली: देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री उत्तर प्रदेश के मुगलसराय (अब पं. दीनदयाल उपाध्याय नगर) में पैदा हुए। उनके नेतृत्व में देश ने 1965 की जंग में पाकिस्तान को करारी मात दी थी। उन्होंने नारा दिया, 'जय जवान, जय किसान।' वह शांति समझौते के लिए ताशकंद गए थे, जहां उनका निधन हो गया। भारत रत्न से सम्मानित लाल बहादुर शास्त्री के आने वाले जन्मदिन (बुधवार) के मौके पर पेश है उनके बेटे सुनील शास्त्री की किताब का एक हिस्सा

जरा ड्राइवर से कहिए कि...

मैं हमेशा कल्पना किया करता था कि हमारे पास छोटी गाड़ी नहीं, बड़ी आलीशान गाड़ी होनी चाहिए। बाबूजी प्रधानमंत्री हुए तो जो गाड़ी मिली, वह थी हम्माला

शेवरले,उसे देख-देख बड़ा जी करता था कि मौका मिले और उसे चलाएं। प्रधानमंत्री का लड़का था, कोई मामूली बात नहीं थी। सोचते-विचारते कल्पना की उड़ान भरते एक दिन मौका मिल गया। धीरे-धीरे हिम्मत भी खुल गई थी ऑर्डर देने को हमने बाबूजी के पर्सनल सेक्रेटरी से कहा- सहाय साहब, जरा ड्राइवर से कहिए इम्पला लेकर रेजिडेंसी की तरफ आ जाए।

बाबूजी की गाड़ी से सैर

दो मिनट में गाड़ी आकर दरवाजे पर लग गई। हम और अनिल भैया कहां खाने पर जाने वाले थे। अनिल भैया ने कहा कि मैं तो इसे चलाऊंगा नहीं, तुम्हीं चलाओ। मैं आगे बढ़ा। ड्राइवर से चाबी मांगी। बोला- तुम बैठो, आराम करो, हम लोग वापस आते है अभी। वह बेचारा क्या कहता। मैं गाड़ी लेकर चल पड़ा। क्या शान की सवारी थी। याद करके बदन में झुरझुरी आने लगती है। जिसके यहां खाना था, वहां पहुंचा। बातचीत में वक्त का ध्यान नहीं रहा। देर हो गई। याद आया, बाबूजी आ गए होगे।

कहीं बाबूजी को पता न चल जाए

वापस घर आकर फाटक से पहले ही गाड़ी रोक दी। उतरकर गेट तक आया। संतरी को हिदायत दी। कोई सलूट लूट नहीं। बस, धीरे से गेट खोल दो वह आवाज करे तो उसे बंद मत करो, खुला छोड़ दो। बाबूजी का डर वह खट-पट सलूट मारे तो बेवजह आवाज होगी और फिर गेट की आवाज से बाबूजी को हम लोगों के लौटने का अंदाजा हो जाएगा। वे बेकार की पूछताछ करेंगे। अभी बात ताजा है। सुबह तक बात पर पानी पड़ चुका होगा। संतरी से जैसा कहा गया, उसने किया।

बाबूजी से मांगी माफी

दबे पैर पीछे किचन के दरवाजे से अंदर घुस जाते ही अम्मा मिली। पूछा- बाबूजी आ गए? कुछ पूछा तो नहीं ? बोली- हां, आ गए। पूछा था। मैंने कह दिया। आगे कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ी। यह जानने- सुनने की कि बाबूजी ने क्या कहा। फिर हिदायत दी सुबह किसी को कमरे में मत भेजिएगा। रात देर हो गई है। सुबह तक सोना होगा। सुबह साढ़े पांच पौने छह बजे किसी ने दरवाजा खटखटाया। नींद टूटी। मैंने बड़ी तेज आवाज में कहा- देर रात को आया हूं, सोना चाहता हूं, सोने दो। यह सोचकर कि कोई नौकर होगा। चाय लेकर आया होगा जगाने,लेकिन दरवाजे पर फिर दस्तक पड़ी। झुंझलाकर जोर से बिगड़ने के मूड में दरवाजे की तरफ बढ़ा बड़बड़ाता हुआ दरवाजा खोला। पाया, बाबूजी खड़े हैं। हमें कुछ नहीं सूझा माफी मांगी।

जब बाबूजी ने पूछ ली रात की कहानी

बेध्यानी में बात कह गया हूं। वह बोले- कोई बात नहीं, आओ-आओ। हम लोग साथ चाय पीते हैं। हमने कहा- ठीक है। बस जल्दी-जल्दी हाथ-मुंह
धोकर चाय के लिए टेबल पर जा पहुंचा। लगा, उन्हें सारी रामकहानी मालूम है। पर उन्होंने कोई तर्क नहीं किया। न कुछ जाहिर होने दिया। कुछ देर बाद चाय पीते-पीते बोले कि अम्मा ने कहा, तुम लोग आ गए हो पर तुम कहते हो रात बड़ी देर को आए। कहां चले गए थे? जवाब दिया- हां, बाबूजी एक जगह खाने पर चले गए थे। उन्होंने आगे सवाल किया लेकिन खाने पर गए तो कैसे? जब मैं आया तो फिएट गेट पर खड़ी थी गए कैसे?

14 किलोमीटर, प्राइवेट पूल

कहना पड़ा हम इम्पाला शेवरले लेकर गए थे। बोल- ओह हो तो आप लोगों को बड़ी गाड़ी चलाने का शौक है। बाबूजी खुद इम्पाला का इस्तेमाल न के बराबर करते थे और वह किसी स्टेट गेस्ट के आने पर ही निकलती थी। उनकी बात सुनकर मैने अनिल भैया की तरफ देख आंख से इशारा किया। मैं समझ गया था कि यह इशारा इजाजत का है। अब हम उसका आए दिन इस्तेमाल कर सकेंगे। चाय खत्म कर उन्होंने कहा- सुनील, जरा ड्राइवर को बुला दीजिए। मैं ड्राइवर को बुला लाया।

निकल आया रोना

उससे उन्होंने पूछा कि तुम लॉगबुक रखते हो ना? उसने 'हां' में जवाब दिया। उन्होंने आगे कहा- एंट्री करते हो? कल इन लोगों ने कितनी गाड़ी चलाई ? यह बोला- 14 किलोमीटर। उन्होंने हिदायत दी उसमें लिख दो, 14 किलोमीटर, प्राइवेट पूल। तब भी उनकी बात हमारी समझ में नहीं आई। फिर उन्होंने अम्मा को बुलाने के लिए कहा। अम्मा जी के आने पर बोले सहाय साहब से कहना 7 पैसे प्रति किलोमीटर के हिसाब से पैसे जमा करवा दें। इतना जो उनका कहना था कि हम और अनिल भैया वहां रुक नहीं सके। जो रुलाई छूटी तो वह कमरे में भागकर पहुंचने के बाद काफी देर तक बंद नहीं हुई। दोनों ही जने देर तक फूट-फूटकर रोते रहे।

फटे कपड़े का कर लेते थे उपयोग

एक दिन बोले- सुनील, मेरी अलमारी काफी बेतरतीब हो रही है। तुम उसे ठीक से संवार दो और कमरा भी ठीक कर देना। मैंने स्कूल से लौटकर वह सब कर डाला। दूसरे दिन मैं स्कूल जाने को तैयार हो रहा था कि बाबूजी ने मुझे बुलाया पूछा- तुमने सब कुछ बहुत ठीक कर दिया, मैं बहुत खुश हूं पर मेरे वे कुर्ते कहां हैं? मैं बोला- वे कुर्ते थे भला कोई यहां से फट रहा था तो कोई वहां से वे सब मैने अम्मा को दे दिए। उन्होंने पूछा- यह कौन-सा महीना चल रहा है? मैंने जवाब दिया- अक्टूबर का अंतिम सप्ताह,उन्होंने आगे जोड़ा अब नवंबर आएगा जाड़े के दिन होंगे, तब ये सब काम आएंगे। ऊपर से कोट पहन लूंगा ना।

मैं देखता रह गया क्या कह रहे हैं बाबूजी ? वे कहते जा रहे थे ये सब खादी के कपड़े हैं। बड़ी मेहनत से बनाए हैं। बनाने वाले का एक-एक सूत काम आना चाहिए। मुझे याद है, मैंने बाबूजी के कपड़ों की तरफ ध्यान देना शुरू किया था क्या पहनते हैं, किस किफायत से रहते हैं। मैंने देखा था, फटा हुआ कुर्ता एक बार उन्होंने अम्मा को देते हुए कहा था- इनके रुमाल बना दो।

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