अंगेला मर्केल से नहीं मिल पाए थे मोदी 2022 में जर्मनी से होगी नए रिश्तों की शुरुआत

Updated on 02-05-2022 08:00 PM

नई दिल्ली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बर्लिन में हैं। वही शहर, वही होटल, कमरे की खिड़कियों से दिखता वही पूरब पश्चिम विभाजन का प्रतीक ब्रांडेनबुर्ग गेट। लेकिन इस बार प्राथमिकताएं अलग हैं, मोदी के सामने चुनौतियां अलग हैं। भारत का प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी पहली बार 2014 में जर्मनी गए थे, उस समय वह नए थे और जर्मनी की चांसलर अंगेला मैर्केल विश्व मंच पर स्थापित राजनेता। पारस्परिक संबंधों के हिसाब से जर्मनी भारत का महत्वपूर्ण साझेदार है, इस लिहाज से यह यात्रा महत्वपूर्ण थी।

 भारतीय प्रधानमंत्री को ब्राजील भी जाना था और वह वहां जाते हुए इस बार फ्रैंकफर्ट के बदले बर्लिन में रुके ताकि जर्मन चांसलर से मिल सकें। लेकिन इस दौरे पर अंगेला मर्केल से नरेंद्र मोदी की मुलाकात नहीं हुई, लेकिन ब्रांडेनबुर्ग गेट ने उन्हें पूरब और पश्चिम के बंटवारे का अहसास जरूर कराया। कभी जो दीवार पूर्वी और पश्चिमी यूरोप को अलग करती थी, उसके नीचे से पैदल गुजरना प्रधानमंत्री के लिए एक नई आजाद दुनिया का अहसास था। वह भारत को भी इसका हिस्सा बनाना चाहते थे।

 ब्राजील में हो रहे फुटबॉल विश्वकप ने प्रधानमंत्री की यात्रा की तैयारी करने वाले अधिकारियों की मंशा और लक्ष्यों पर पानी फेर दिया था। इस यात्रा पर जिस दिन मोदी बर्लिन पहुंचे, उसके एक दिन पहले चांसलर मैर्केल ब्राजील के लिए निकल गईं, जहां उनके देश की टीम मेजबान ब्राजील की टीम को हराकर विश्वकप के फाइनल में पहुंच गई थी। भारतीय अधिकारी विदेशी संवेदनाओं पर कितना कम ध्यान देते हैं। ब्राजील के राष्ट्रपति ने भारतीय प्रधानमंत्री को भी फाइनल मैच देखने के लिए न्यौता भी दिया था, लेकिन वहां डिल्मा रूशेफ के अलावा मर्केल और ब्लादिमीर पुतिन भी मौजूद थे, लेकिन मोदी नहीं पहुंच पाए। फुटबॉल की दुनिया के महत्वपूर्ण देशों के लिए फाइनल तक पहुंचना बड़े सम्मान की बात होती है।

हालांकि ब्राजील सेमीफाइनल में जर्मनी से बुरी तरह हार गया, लेकिन उम्मीदें तो जीत की ही थीं। नरेंद्र मोदी ने विश्व कप के बाद हुई ब्रिक्स देशों की बैठक में भाग लिया, जो साझा हितों के अभाव में और भारत चीन विवादों के बाद बस एक क्लब जैसा होकर रह गया है। जर्मनी के साथ दोस्ती बढ़ाने की कोशिश शुरुआत भले ही मनचाही रही हो, लेकिन अंगेला मैर्केल ने मनमोहन सिंह के दिनों में बने संबंधों को नरेंद्र मोदी के साथ भी जोड़ने की कोशिश की। मोदी अगले साल फिर जर्मनी आए।

हनोवर के मशहूर व्यापार मेले में भारत सहयोगी देश था। बड़े पैमाने पर भारत की आर्थिक संभावनाओं को पेश किया गया और सहयोग की नई संभावनाएं तलाशी गईं। प्रधानमंत्री के मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के लिए दोनों ही देशों के कारोबारियों और अधिकारियों में जबरदस्त उत्साह दिखा। आखिर दोनों देशों को एक दूसरे की जरूरत भी है, वे एक दूसरे के पूरक भी हैं। जर्मनी को जिन चीजों की जरूरत है, वह भारत दे सकता है और भारत को अपने तेज विकास के लिए जो चाहिए, वह जर्मनी दे सकता है।

 युद्ध ने भारत के लिए भी मुश्किलें पैदा कर दी है। एक ओर पश्चिमी लोकतांत्रिक देश भारत पर रूस पर प्रतिबंधों में शामिल होने के लिए दबाव बना रहे हैं। तो दूसरी ओर भारत रूसी हमले को गलत मानते हुए भी सामरिक निर्भरता के कारण उसका साथ नहीं छोड़ पा रहा है। रक्षा जरूरतों के लिए वह रूस पर निर्भर है तो लोकतांत्रिक आर्थिक विकास के लिए पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों पर।

 उस पर चुनाव करने का दबाव है।शीत युद्ध की समाप्ति के बाद के वर्षों में गुट निरपेक्ष आंदोलन कमजोर होता गया है और आंदोलन के संस्थापकों में शामिल भारत ने ऐसा होने दिया है। अब वह अकेला दिख रहा है। उसे यूरोप की जरूरत है। भारत का आज का फैसला उसके कल की नींव रखेगा। यह नींव एक लोकतांत्रिक और समावेशी समाज वाली नींव होगी। बहुध्रुवीय विश्व में यूरोप भारत के लिए महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी यूरोप में अलग-अलग अंतरराष्ट्रीय गुटों के साथ संवाद बढ़ा कर भारतीय विदेश नीति में यूरोप को महत्व दे रहे हैं।


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